मर्यादा – पुरुषोत्तम राम

मर्यादा – पुरुषोत्तम राम

“राम” का नाम आते ही “मर्यादा – पुरुषोत्तम” शब्द का ज़िक्र ज़रूर आता है। प्रभू श्रीराम ने एक पत्नी व्रत लिया हुआ था। इसीलिए उन्होंने मां सीता के अलावा कभी किसी अन्य स्त्री का वरण नहीं किया। वरण तो दूर, किसी पर स्त्री का ख्याल भी नहीं किया। कभी – कभी मेरे। मन में यह प्रश्न उठता है कि क्या पुरुष का मर्यादा पुरुषोत्तम होना काफ़ी है?

क्या सिर्फ यही एक सुखी दाम्पत्य जीवन का आधार हो सकता है?

प्रभु श्रीराम बड़े पराक्रमी एवं वीर थे। कहा जाता है उनके राज्य में समस्त प्रजा सुखी एवं समृद्ध थी। तो क्या सच में उन्होंने अपने जीवन की पूर्णता को प्राप्त किया। सभी के साथ न्याय करके, सभी को सुख एवं समृद्ध बनाकर भी वे स्वयं की ही अर्द्धांगिनी के साथ न्याय क्यों नहीं कर पाए?

क्यों उन्हें सुखी एवं समृद्ध जीवन नहीं दे पाए? यह प्रश्न कई लोगों के मन में अवश्य उठता होगा कि उनके जीवन से हमें क्या प्रेरणा मिलती है।?!

यदि गहराई से उनके जीवन का विश्लेषण किया जाए तो मेरे समक्ष एक ही बात स्पष्ट होती है। वह यह कि उन्होंने अपने जीवन से समाज को यह संदेश दिया है कि सुखी दाम्पत्य जीवन का आधार मात्र मर्यादा पुरुषोत्तम होना नहीं, अपितु समय आने पर सदैव अपने जीवसाथी के साथ उसके आत्मसम्मान की रक्षा हेतू खड़े रहना भी है।

यह एक अच्छी बात है कि आप आपके जीवन साथी के प्रति ईमानदार रहें। परन्तु, सबकुछ होने पर भी यही आवश्यकता पड़ने पर उनके साथ खड़े नहीं हो सकते तो सुखी दाम्पत्य जीवन कैसे जिएंगे?

अब प्रश्न यह उठता है कि क्या प्रभु श्रीराम को मां सीता पर अटूट विश्वास नहीं था?

उत्तर स्पष्ट है- अटूट विश्वास तो था, परन्तु शायद समाज के ठेकेदारों का मुंह बंद करने का यह उनका अपना तरीका था।

तो क्या वे समाज के लोगों को उत्तर नहीं दे सकते थे? वे तो वीर एवं पराक्रमी थे ना! फ़िर क्यों बेबस हो गए वे?

वे उत्तर दे नहीं सकते थे!! अपितु उन्होंने उत्तर दे दिया। ऐसे लोगों की हमारे समाज में भरमार है। जो स्त्री की आए दिन अग्नि परीक्षा लेते हैं। विशेषकर उन स्त्रियों की जिनमें वह लेष मात्र भी दोष नहीं निकाल सकते। ऐसा करके इन लोगों को अद्भुत आनन्द की प्राप्ति होती है।

उत्तर तो समाज को प्रभु श्रीराम ने दिया है और वह यह है, कि यदि समाज के ऐसे ठेकेदारों की परवाह करके हम अपनी सीता जैसी पवित्र नारी का सम्मान नहीं कर सकते!!

यदि समाज के कारण हम उनके अग्नि परीक्षा उत्तीर्ण करने पर भी बार- बार प्रश्न उठाते रहते हैं। बार- बार उन्हें अपमानित करते हैं। बार-बार उन्हें लज्जित करते हैं। तो सामान्य व्यक्ति तो क्या, यदि साक्षात् प्रभु भी ऐसा करें तो उन्हें भी भयंकर पीड़ा का सामना करना पड़ता है।

जब भी मनुष्य अपनी अग्नि समान पवित्र नारी की परीक्षा लेगा, उसे कष्ट तो झेलना ही होगा।

मां सीता ने दर्शाया कि वह नारी भी कब तक अग्नि परीक्षा देगी? कब तक समाज को उसे स्वयं के सही एवं पवित्र होने का प्रमाण देना होगा? फ़िर तो नारी सीता बनने से भी घबराएगी!!

कितनी अजीब बात है, एक मनुष्य किसी पर जब नकारात्मक आक्षेप लगाता है। तो समस्त मनुष्य उसके पीछे भेड़ चाल में चलते रहते हैं! परन्तु यही मनुष्यों का झुंड तब कहां चला जाता है जब कोई सही या किसी के भले की बात करता है या फिर किसी के गुणों की प्रशंसा करता है, एवं किसी पर नकारात्मक टिप्पणी करता है!?!

प्रभु श्रीराम ने दर्शाया है कि अवगुणों को देखना तो सामान्य मनुष्य का कार्य है। ऐसा करके आप कोई महान कार्य नहीं कर रहे हैं।

यदि हमारा समाज सीता जैसी पवित्र, सशक्त सतित्व धारण करने वाली नारी का सम्मान नहीं कर सका, तो सामान्य नारी की पवित्रता एवं सातित्व का सम्मान क्या ख़ाक करेगा?

ऐसे सम्मान हेतु तो कोई मां भी मां सीता जैसी नारी उत्पन्न करने से कतराएगी!!

अंत में जब मां सीता को धरती मां अपने साथ ले जाती हैं, यही कहती हैं कि यह समाज तुम्हारे योग्य नहीं। परन्तु, धरती मां ने सीता मां जैसी पुत्रियां उत्पन्न करना नहीं छोड़ा। शायद इसी आस में कि कभी तो किसी सीता का साथ कोई राम देगा। कभी तो उनके द्वारा उत्पन्न की गईं समस्त सीताओं की अग्नि परीक्षा होना थमेगा।

ऐसा करके हम अपनी पीढ़ियों को क्या ज्ञान देना चाहते हैं? यह तो हम पर ही निर्भर करता है। इस प्रकार का व्यवहार नारियों के साथ हर युग में होता आया है। परन्तु, सत्य तो यह है कि युग हमारे बाहर नहीं अपितु हमारे भीतर विद्यमान हैं। चाहे वो सतयुग हो त्रेता, द्वापर या फ़िर कलयुग।

सतयुग वहां है जहां नारी का सम्मान है, उसकी पवित्रता, उसके सतित्व का सम्मान है। निर्णय हमारा है कि हम किस युग में जीना चाहते हैं।

ऐसा नहीं है कि सीता मां जैसी नारियों की मांग नहीं है। बहुत मांग है परन्तु क्या सिर्फ इसीलिए ताकि हम उनका शोषण कर सकें? कदम कदम पर उनकी परीक्षा ले सकें? कदम कदम पर उनको अपने मापदंडों के तराज़ू पर तोल सकें!

देखा जाए तो त्याग तो दोनों ने ही किया मां सीता ने किया इस समाज का, जो कि उनके आत्म सम्मान का सूचक है। प्रभु श्रीराम ने किया मां सीता का जो कि इस समाज के लिए बहुत बड़ा सबक है।

एक ओर मां सीता ने त्याग करके यह दर्शाया है कि जहां नारी, उसकी पवित्रता एवं सतित्व का सम्मान नहीं होगा, वहां फ़िर ऐसा समाज उस नारी के योग्य नहीं। दूसरी ओर प्रभु श्रीराम ने त्याग करके यह समझाया कि यदि नारी की पवित्रता एवं सतित्व का सम्मान नहीं होगा तो एक सफल दाम्पत्य जीवन की परिकल्पना करना ही नामुमकिन है।

त्याग दोनों ने किया परन्तु, अंतर यह था कि मां सीता जैसी पत्नी सभी चाहते हैं। परन्तु, सारे गुण होते हुए भी प्रभु श्रीराम जैसा पति भी कोई स्त्री चाहती होगी, यह कहना कठिन है।

ऐसे थे प्रभु श्रीराम जो इतने अद्भुत तरीक़े से लोगों को अपना दृष्टिकोण समझा गए। उनका तरीका अत्यंत सरल था, बिल्कुल उन्हीं की तरह।

अब निर्भर हम पर करता है कि हम उनके त्याग से क्या शिक्षा लेते हैं!?!

~सोच एवं चुनाव हमारा है।
~जय सिया-राम ।

One thought on “मर्यादा – पुरुषोत्तम राम

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