
मित्रता(Friendship)
सुना है कि मित्रता बराबर वालों से ही की जानी चाहिए। परन्तु, इतिहास इस बात का गवाह है कि मित्रता में कोई ऊंच- नीच कोई छोटा- बड़ा नहीं होता।
परन्तु, इन शब्दों के मध्य हम अंतर ही नहीं कर पाते। क्योंकि हमारे पास समय ही कहां है कि हम हर बात को हर चीज़ के पीछे की गहराई को भली प्रकार से माप सकें।
अतः हम सभी से मित्रता करना आरम्भ कर देते हैं। हमारे जीवन साथी, mata- पिता, भाई- बहन, संतान यहां तक की गुरु भी।
एक बात आजकल काफ़ी प्रचलन में है कि हर रिश्ते में मित्रता होनी चाहिए तभी वह रिश्ता सफल हो सकता है।
मैं भी पहले यही मानती थी। परन्तु, मेरे अनुभव से मुझे यह ज्ञात हुआ कि यह प्रचलन कितना गलत है। अर्थात् इस प्रचलन के चलते हमारे सभी रिश्ते बुरी तरह से नाकामयाब हो रहे हैं। हर रिश्ते से हर तरफ से हमें पराजय ही हासिल हो रही है।
तनिक सोचिए यदि यह कहावत और प्रचलन सही होता, तो क्यों आज गुरुओं का सम्मान दाव पर लगा हुआ है? क्यों आजकल इतने तलाक हो रहे हैं? क्यों संतान माता- पिता का निरादर करके उन्हें बेघर तक कर देती है?
यह सब कहीं न कहीं इसी प्रचलन के चलते है। अब ज़रा नज़दीक से, अवलोकन करें।
“मित्रता एक ऐसा सम्बन्ध है, जिसमें आप खुलकर अपने विचार अपने मित्र से कहते हैं। उसमें ना तो आपको ज़्यादा सोचना- विचारना पड़ता है, ना ही शब्दों को ज़्यादा तोलना पड़ता है।”
मित्रता में आप स्वचछंदता का अनुभव करते हैं। और जहां स्वचछंदता है वहां किसी के लिए सम्मान एवं आदर कहां से होगा?
हम सभी में से कितने लोग ऐसे होंगे, जो अपने मित्र को गुरु, माता – पिता, भाई- बहन या बड़ों जैसा सम्मान देते होंगे? इस प्रश्न का उत्तर हम बड़ी ही सरलता से बता सकते हैं।
आजकल विद्यालयों में बहुत ही कम शिष्य एवं शिष्या ऐसे होते हैं जो गुरु का सम्मान करते हैं। क्योंकि गुरु से मित्रवत रहने पर गुरु- शिष्य की गरिमा, एवं गुरु- शिष्य का भाव स्वतः ही समाप्त हो जाता है। और जब ऐसा हो रहा है, तो कैसे एक गुरु अपने शिष्यों को जीवन के नियम एवं विषयों की गूढता को समझाएं। क्योंकि शिष्य तो उन्हें गुरु कम एवं मित्र ज़्यादा समझते हैं। तो उनकी किसी बात को गंभीरता से लेते ही नहीं।
फिर हम इस बात का रोना रोते हैं कि इतना खर्चा करने पर शिक्षा तो मिली। परन्तु, संतान को संस्कार नहीं मिले। गुरुओं को समस्या रहती है कि हमारे शिष्य बात नहीं सुनते, हमें सम्मान नहीं देते।
इसी प्रकार जब माता- पिता अपनी संतान से मित्रवत रहते हैं, तो संतान उनके समक्ष इतनी स्वच्छंद हो जाती है कि हर अच्छी- बुरी बात उनको इतना खुलकर कहती है, फ़िर जब किसी ग़लत बात पर माता- पिता उन्हें समझाए या उनका किसी बात पर विरोध करें तो वह बात संतान के ना तो समझ आती है एवं ना ही वे उनकी किसी बात का पालन कर पाते हैं। अपितु, गलत बात पर रोक- टोक या डांटने का भी संतान पर कोई असर नही होता।
पति- पत्नी के मध्य जब मित्रवत सम्बन्ध होते हैं, तो एक लाज़, एक शर्म, एक रूमानियत, जो कि इस रिश्ते की सबसे नाज़ुक परन्तु, प्रभावी डोर होती है, टूट जाती है, ख़त्म हो जाती है। और फ़िर दोनों ही उसे दूसरी जगह तलाशने लगते हैं। साथ ही साथ दोनों के मध्य का स्नेह और सम्मान भी इससे काफ़ी हद तक प्रभावित होता है।
सत्य तो यह है कि रिश्तों में मिलावट ठीक नहीं! यह ज़रूर सही है कि अपने हर रिश्ते को आरामदायक तरीक़े से निभाना चाहिए। अर्थात् इतना लचीलापन अवश्य होना चाहिए कि यदि किसी को कोई समस्या हो तो वह हम तक अपनी बात आसानी से पहुंचा सके। परन्तु, रिश्तों की गरिमा को भंग किए बिना।
~गहराई से सोचिएगा अर्थपूर्ण लगेगा।