
भय… डर(Fear)
भय एक ऐसी भावना है, जो हमें स्वयं के अस्तित्व से जुड़ने से रोकती है।
यदि हम जीवन में कुछ करना चाहें, आगे बढ़ना चाहें, स्वयं को एवम् अपने जीवन को बदलना चाहें, तो यही भय हमारे मार्ग को अवरूद्ध कर देता है।
भय एक ऐसी ज़ंजीर है, जो हमें इस प्रकार कस लेती है कि हम चाह कर भी उससे मुक्त नहीं हो पाते।
परन्तु यह भी सत्य है कि “डर के आगे जीत है।” जिसने इसका सामना किया वह अपनी यात्रा में पार ही हुआ है, कभी रुका नहीं, कभी थका नहीं।
कई प्रकार के भय हमें सताते हैं, दुनिया का भय, समाज का भय, अपनों का भय, सपनों का भय।
दुनिया का भय विशेषतः हमें तब ज्यादा सताता है, जब हम अपनी शक्तियों से, सामर्थ्य से, अपने आप से पूर्णतया परिचित नहीं होते।
जैसे- जैसे हम स्वयं को, अपने सामर्थ्य को जानने लगते हैं, यह भय हमारे मन से निकल जाता है। तब हमारा सामना होता है, समाज के भय से।
समाज का भय जब हमें घेरता है, तो थोड़ी स्थितियां असामान्य प्रतीत होती हैं। हमें अपने अस्तित्व की चिंता होने लगती है, सम्मान की चिंता होने लगती है। परन्तु, जब हम इस भय का सामना कर इसे परास्त करते हैं। हमारे समक्ष अपनों का भय आकर खड़ा हो जाता है।
उसकी अट्टहास भरी हंसी पहले वाले भय से अधिक भारी, ऊंची एवम् गंभीर होती है। तब हमें चिंता होती है, अपनों की, उनके साथ की, उनकी अपेक्षाओं की। लगने लगता है, कहीं वे हमसे रूठ ना जाएं, छूट ना जाएं, दूर ना हो जाएं, कहीं वे चोटग्रस्त ना हो जाएं।
यह भय बहुत ही ज्यादा विकराल, विशाल एवं भयावह होता है। और यहीं से शुरुआत होती है भटकाव की।
वैसे भटकने की स्तिथि पूर्व दो भय में ही होती है, परन्तु यहां भटकने की संभावना और भी तेजी से बढ़ जाती है।
हम अपनों के भय से इस प्रकार घिर जाते हैं, कभी दूसरों को तो कभी- कभी स्वयं को भी नुकसान कर बैठते हैं।
पहली दो स्तिथियां अधर्म करने में सहायक होती है, परन्तु इस स्तिथि में मनुष्य चाहकर भी अधर्म को रोक नहीं पाता। यह ज़ंजीर उसे और भी मजबूती से जकड़ लेती है। इस स्तिथि में हम ना तो दूसरों के लिए एवम् ना ही स्वयं के लिए खड़े हो पाते हैं।
इस ज़ंजीर को तोड़ने हेतु हमें और भी अथक प्रयासों की आवश्यकता होती है। संघर्ष और ज़्यादा हो जाता है। जब हम इस स्थिति से भी निकल आते हैं। तब हमें एक असीम सुकून मिलता है। वह सुकून जो हम केवल महसूस कर सकते हैं।
परन्तु, तभी हमारा सामना हमारे सपनों से होता है। वे सपने, जो हमारा सहारा थे, कभी हमारे लिए प्रेरणादाई थे। कभी हमारे मार्गदर्शक, कभी हमारे गुरु तो कभी हमारे मित्र थे। हमारा सबकुछ थे वे सपने जो हमने कभी देखे थे।
भय होता है, हमें उनके टूटने का, बिखरने का, जब वे टूटते हैं तो हम, जो उनके टूटने की कल्पना मात्र से सहम जाते थे। उसकी चुभन को सह नहीं पाते।
जब भी आस- पास नज़र दौड़ाते हैं, महसूस होता है। क्यों हम इतना पिछड़ गए, क्यों पहले के तीनों भय से जीतने में हमने इतना समय नष्ट कर दिया।
परन्तु, सत्य तो यही है कि उनसे नहीं जीत पाते तो यहां तक कैसे आते, उनका सामना नहीं करते तो इतिहास कैसे रचते। उनको पीछे नहीं छोड़ते तो जीवन में आगे कैसे बढ़ते।
तो अब क्या करें, जो सपने देखे थे, वे भी साथ छोड़ देंगे तो हम करेंगे क्या, जीएंगे कैसे, श्वास कैसे लेंगे। यह भय पिछले तीनों भय से भी ज़्यादा भयावह एवं विकराल प्रतीत होता है। हम में से कुछ हिम्मत हार जाते हैं।
कुछ हिम्मत जुटा कर सामना करते हैं, उस भय का भी, जो उनके समक्ष हैं, इस पल, यहां, अभी, वर्तमान में, इसी क्षण।
तब…… वे पाते हैं एक अदभुत चमकता हुआ, स्वर्णिम अस्तित्व, वे पाते हैं, स्वयं की सही पहचान, वे पाते हैं स्वयं का सही लक्ष्य, स्वयं का सही सम्मान, स्वयं का सही प्रेम, स्वयं का सही साथ।
वे पाते हैं स्वयं को पूर्णतया, वे पा लेते हैं सबकुछ, उनके सपने, उनके अपने, समाज एवं दुनिया को।
तो आइए इन चारों भय पर विजय पाएँ एवं स्वयं के उत्थान की ओर कदम बढ़ाएं।
~एक सलाम स्वयं के नाम।